Friday 28 August 2015

दरिंदगी का शिकार हुई दामिनी को समर्पित कविता//गगनदीप गुप्ता

क्योंकि एक बस चार दरिंदे लिये, शान से चलती गयी
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दिल्ली की वह दरिंदगी भरी वहशियाना वारदात याद आते ही आज भी आम जनमानस के दिलो-दिमाग में एक सिहरन सी दौड़ जाती है। सियासत की अपनी मजबूरियां हो सकती हैं।  कानून के हाथ नियमों से बंधे हो सकते हैं और पुलिस व प्रशासन की अपनी बेबसी हो सकती है। लगता है उसे भुलाया जा रहा है। जानबूझ कर हालात से आँखें मूंदी जा रही हैं।  अगर सबक सीखने वाली करवाई हुई होती तो उसकी मौत के बाद भी यह एह्र्मनाक सिलसिला जारी नहीं रहता। उसके आखिरी दिनों की कल्पना भी बहुत पीड़ा दायिक है।  उस दर्द को महसूस करते हुए कुछ पंक्तियाँ लिखीं हैं-गगनदीप गुप्ता ने। उन पंक्तियों को हम यहाँ ज्यों का त्यों प्रकाशित कर रहे हैं। आपको यह रचना कैसी लगी अवश्य बताएं। आपके विचारों की इंतज़ार बानी रहेगी। 
आज फिर मेरी कलम चलने को तैयार हो गयी,
लगा उसकी आत्मा वहशीपन का शिकार हो गयी,
मानवता को डस लिया मानवता ने ऐसे,
खून की नलियाँ जैसे ज़हरीला बहाव हो गयीं।

इक मासूम, इक लड़की, तन्हा-ओ-बेबस,
बस इसलिये कर दी गयी,
क्योंकि एक बस चार दरिंदे लिये,
शान से चलती गयी।

न कहूँगा उन्हें जानवर,
कि जानवर तो जान वार देते हैं,
वो चार हैं वही वहशी दरिंदे,
जिन्हें हम समाज में पनाह देते हैं।

बहादुर करार दिया उस मासूम को,
कि वो अब तक मरी नहीं, जली नहीं,
ज़िंदा भी है अब तलक जो,
कि साँसें अभी रुकी नहीं।

इशारों में पुछती है माँ-बाप से,
क्या मिलेगा इंसाफ़ इस दर्द का?
क्या होगा ईलाज इस मर्ज़ का?
कि जागेगी आवाम इस पाप से।

कोख से जन्मे मेरी जो,
मेरा ही दामन दाग़दार कर दिया,
चंद हवस के पुतलों ने,
हर माँ को शर्मसार कर दिया।

सज़ा हो फाँसी या फिर,
नपुंसक हर उस शख़्स को बनाने की,
ज़रुरत है तो बस आज,
और मासूमों की लाज बचाने की।

क्यों न 'गगन' हो कुछ ऐसा कानून,
कि सहर जायें कब्रों के मुर्दे भी,
हर आरोपी का हश्र हो ऐसा,
निकाल दो आँखें, दिल और गुर्दे भी।

एक इल्तज़ाः
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वो जो एक मासूम जान,
लेटी मरणशया पर कराह रही है,
मेरी कलम क्या लिखे और,
सोचकर ही उसकी जान जा रही है।

दुआ है बस दोस्तो!
कर सको तो करो उसके लिये,
वरना तो जीना भी है मुश्किल,
इस जहाँ में खुदा के लिये।
रिंदगी का शिकार हुई दामिनी को समर्पित कविता//गगनदीप गुप्ता