Wednesday 9 September 2020

दमन रोको-आई एल ओ का बेलारूस को विशेष पत्र

Wednesday: 9th September 9 at 10:04 PM
 बेलारूस में चल रहे प्रदर्शनों के चलते हो रहा है वर्करों का दमन 
इस तस्वीर को क्लिक किया Natallia Rak ने
जेनेवा: 9 सितंबर 2020: (आई एल ओ न्यूज़//जन मीडिया मंच)::
इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाईजेशन के डायरेक्टर जनरल गुई राईडर (Guy Ryder) ने बेलारूस के राष्ट्रपति अलेक्सेंडर लुकाशेंको (Alexander Lukashenko) को लिखे एक पत्र में कहा है कि मानवाधिकारों के उलंघन को रोकें और वर्करों के लिए पूरा सम्मान सुनिश्चित करें। इसके साथ ही उन्होंने कहा कि देश में वर्करों के रोष प्रदर्शनों की बाढ़ सी आई हुई है ऐसे में आवश्यक है कि उनकी स्वतंत्रता और उनके अधिकारों का विशेष ध्यान रखा जाये। अगर उनकी स्वतंत्रता और उनके अधिकारों का हनन होता है तो यह ठीक नहीं होगा। 
इस पत्र में उन्होंने छह ट्रेड यूनियनिस्टों पर लगाए गए आरोपों को वापिस लेने और उन्हें रिहा करने पर भी ज़ोर दिया है। यह लोग शांतिपूर्ण प्रदर्शन और इंडस्ट्रियल  शामिल हुए थे। 
उन्होंने अपने पत्र में राष्ट्रपति को याद दिलाया कि शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे वर्करों को हिंसा मुक्त माहौल देना  सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है। इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि वर्करों और प्रदर्शनकारियों पर कोई दबाव न डाला जाये और न ही उनको धमकियां दी जाएँ। अगर ऐसा कोई भी आरोप सामने आता है तो उसकी निष्पक्ष और स्वतंत्र जांच बिना किसी देरी के कराई जाये। 
गौरतलब है कि वर्करों के दमन की कई खबरें आई एल ओ को मिलीं थीं। 

Tuesday 1 September 2020

मज़दूरों की तरफ पीठ करने वालों को भी मज़दूर याद रखेंगे

 वक़्त निकल जाने के बाद अब कौन से संघर्ष? 
गांव कुनेक्शन ने इस तस्वीर को स्क्रॉल  इन के हवाले से प्रकाशित किया है 
सब कुछ याद रखा जाएगा
ये उन मजदूरों के पांव है जो अपने बच्चों को गोदी में उठाएं सैकड़ों किलोमीटर पैदल चले। दूर दूर तक पैदल चले तांकि भूख से बचने के लिए अपने घर पहुंच सकें। वही गांव का घर जिसे वे लोग बरसों पहले छोड़  आये थे तांकि शहरों में जा  कमाई  कर सकें। अपने परिवारों पर चढ़े कर्ज़े उतार सकें। सड़कों पर घिसटते हुए यह वे लोग हैं जिन्हें संभालने की ज़िम्मेदारी सरकार भी पूरी न कर सकी इनके लीडर भी इनका साथ छोड़ गए। यह कहीं रेल से कट मरे और कहीं सड़क हादसों में लेकिन हर रोज़ इनके हाथ में झंडा पकड़ने वालों में से किसी ने इन्हें शहीद भी नहीं माना। 
अफ़सोस कि इनके साथ कंधा मिलाने के लिए वे लोग भी नहीं आये जो बरसों से नारे लगाते आ रहे हैं,"दुनिया भर के मज़दूरो एक हो जाओ।" 
अजीब इतफ़ाक़ है कि जब दुःख और संकट की घड़ी ने इन्हें एक हो कर सड़कों पर चलने को मजबूर कर दिया तो इनके रहनुमा कहलाने वाले लोग अपनी एयर कंडीशंड कोठियों में छुप गए कि कहीं कोरोना न देख ले। कहीं हमें कोरोना न डस ले।  मज़दूर शक्ति पर जिन लोगों को कभी नाज़ हुआ करता था उन्होंने यह भी न देखा कि अब मज़दूरों क्या हालत है? मज़दूरों को घर से बेघर हुआ देख कर भी इस तरफ से आंखें फेर ली गई। जिस वक़्त इंक़लाब को नज़दीक लाने का एक सुनहरी मौका दुश्मन  दिया था उस समय इंकलाब ज़िंदाबाद के नारे बुलंद करने वाले खुद ही खामोश हो कर अपने अपने घरों में दुबक गए। 
इनके लीडरों से अच्छा फ़र्ज़ तो बरखा दत्त, राणा अयूब और आरिफा खान शेरवानी जैसी महिला पत्रकारों ने निभाया जो सभी खतरों को उठा कर सड़कों पर इनके हाळात की खबर दुनिया तक पहुंचाने निकलीं। गर्मी से चिलचिलाती सड़कों पर हज़ारों किलोमीटर लम्बा सफर तय किया। यह सब कुछ भी याद रखा जायेगा। जब मज़दूरों के इस लांग मार्च को दिशा देने की ज़रूरत के वक़्त इनके लीडर मीटिंगों के बहाने सुरक्षित कमरों में जा छुपे। मज़दूरों को जो सबक इस सारे घटनाक्रम ने दिया वह उन्हें साड़ी उम्र नारे सुन सुन कर नहीं मिला था। सबक सीखने वाला एक ऐतिहासिक वक़्त निकल गया। 
अब फिर मीटिंगों का दौर शुरू हो गया है लेकिन किसी ने मज़दूरों से क्षमा याचना भी नहीं की कि हमने संकटकाल में आप लोगों को अकेला छोड़ दिया था। हमने उस बेहद नाज़ुक दौर में आप से पीठ कर ली थी। न जाने अब यह लोग किन संघर्षों की बातें कर रहे हैं। 
जिस तस्वीर को इस पोस्ट के साथ प्रकशित किया गया है उसे गांव कुनेक्शन ने स्क्रॉल  इन के हवाले से अप्रैल 2020 में प्रकाशित किया था। इसे लॉक डाउन के 32 दिन बाद क्लिक किया गया था। तस्वीरें देखें तो इससे कहीं ज़्यादा भयानक सीन उनमें ही हैं। मुख्यधारा का मीडिया तो ऑंखें मूंदे पड़ा रहा लेकिन इसके बावजूद जन मीडिया से जुड़े लोगों ने अपने इस फ़र्ज़ को बहुत ही समर्पण भावना से निभाया। यह लोग जिनके पास न तो पैसे थे, न ही गाड़ियां और न ही प्रेस के कार्ड। यह लोग फिर भी मैदान में आ गए। इन लोगों ने हालात के उस  दृश्य को बहुत ही मेहनत से संभाला। शायद सही वक़्त आने पर इन अज्ञात लोगों की तरफ से संभाले गए आडियो वीडियो दस्तावेज़ समय की असली हकीकत को सामने लाएं। कोरोना की मुसीबत के समय इन लोगों के साथ हुआ बेहद निष्ठुर मज़ाक था यह। इस मज़ाक ने मज़दूरों की अनमोल जानें तो ली हैं लेकिन एक इतिहास भी रचा है। उन्हें बताया है कि उनका मार्गदर्शन करने अब न कोई लेनिन आएगा, न ही मार्क्स या माओ और न ही कोई अवतार या पीर पैगंबर। अब मज़दूरपन को खुद ही अपना लीडर बनना होगा।  
अंत में सुरजीत गग की एक पंजाबी कविता की कुछ पंक्तियों का पंजाबी अनुवाद; 
मैं तुम्हें श्रद्धा के सुमन 
भेंट करने से पहले 
अच्छी तरह हिलाडुला कर देखना चाहता हूं 
कहीं तू मरने का ड्रामा तो नहीं कर रहा?  
(नक्सली पत्रिका सुर्ख रेखा के कोरोना विशेषांक से साभार) 
इसी पत्रिका सुर्ख रेखा के इसी विशेषांक में सुरजीत गग की दूसरी भी इसी तरह ज़ोरदार प्रहार करती है:
अब तू खस्सी हो गया है 
"कामरेड"
तेरी आँखों में 
उत्तर आया है 
पूंजीवादी देशों की चकाचौंध का 
मोतिया। 
तुमने बोल बोल कर लिखवाया है 
चारो साहिबज़ादों से 
बे-दावा। 
इसी काव्य रचना के अंत में गग कहता है:
तेरे ड्राईंग रूम की 
दीवार का सिंगार बनने से पहले 
सचमुच पूजने योग्य होती थी 
तेरी घिसी हुई जुत्ती
और फटा हुआ कुरता!....... 

है तो और भी काफी कुछ लेकिन फिर किस अगली पोस्ट में। ऐसा लिखने में दिल का दर्द बढ़ जाता है लेकिन यह प्रयास आवश्यक भी लगता है। शायद किसी ईमानदार कामरेड के अंदर की आवाज़ जाग उठे! उसे समझ आ सके कि अब उसे लेनिन, मार्क्स और माओ को सीधे सीधे  करना होगा। वक़्त देख कर रंग बदलने वालों से मुक्ति अब सबसे अधिक आवश्यक हो गई है।    --मीडिया लिंक रविंद्र 

Tuesday 7 January 2020

मुश्किल समस्याओं का मानवीय सॉल्यूशन खोजा जाना चाहिए

 इंस्टा पर आलिया भट्ट ने पढ़ने वालों को झंकझौरा 
सोशल मीडिया: 7 जनवरी 2020: (इंस्टाग्राम//जन मीडिया मंच)::
मामला सचमुच गड़बड़ाता जा रहा है। जब छात्र ही निशाना बन रहे हैं तो खतरा सचमुच बहुत गंभीर है। अफ़सोस कि ऐसे हालात में वे लोग सो रहे हैं जिन्हें जागना चाहिए था। सड़कों पर आना चाहिए थे। इस दहशतभरी चुप्पी के बावजूद जब मुख्य धारा का मीडिया अपनी ज़िम्मेदारी से कन्नी कतराने लगा है उस   समय उन लोगों का खून खौला है जिनसे उम्मीद थी ही नहीं। वे लोग बोलने का फ़र्ज़ पूरा करने मैदान में आये हैं जिन को मस्ती भरी दुनिया के मस्त लोग ही समझा जाता था। 
ऐसे में आलिआ भट्ट ने हिम्मत दिखाई है। उसने कहा है "हर दिन मामला और डिस्टर्बिंग होता जा रहा है. चल क्या रहा है?"
उसने बहुत ही ज़्यादा हिम्मत दिखाते हुए कहा है, "जब स्टूडेंट, टीचर्स और शांतिपूर्ण तरीके से प्रोटेस्ट करने वाले लोग रेगुलर तरीके से शारीरिक हमले का शिकार होने लगते हैं, तब हमें ये दिखावा बंद कर देना चाहिए कि सब कुछ ठीक है। हमें सच्चाई का सामना करना चाहिए। हमें ये स्वीकार करना चाहिए कि हम गृह युद्ध में शामिल हो चुके हैं। इस देश के लोग हमारी विचारधाराओं से कितने भी अलग क्यों न हों, हमारी सभी मुश्किल समस्याओं का मानवीय सॉल्यूशन खोजा जाना चाहिए और उन शांतिपूर्ण और इनक्लूसिव (समावेशी) आदर्शों को मज़बूत करना चाहिए, जिन पर ये देश बना था। 
कोई भी विचारधारा जो हमें अलग करती हो, हम पर ज़ुल्म करती हो और हिंसा को बढ़ावा देने का प्रयास करती हो, उसका हमें मजबूती से विरोध करना चाहिए.”
आलिआ भट्ट ने इतिहास रचा है। हमेशां याद रखा जायेगा:
इस मौके पर याद आ रही हैं रेक्टर कथूरिया की एक काव्य रचना में से कुछ पंक्तियां:
कुछ लोग वक़्त पर निकले थे; 
कुछ लोग वक़्त पर बोले थे!
जब सब दरवाज़े बंद हुए 
दिल उन्होंने अपने खोले थे!       

यह पोस्ट आपको कैसी लगी अवश्य बताएं। आपके विचारों की इंतज़ार रहेगी ही। --मीडिया लिंक रविंद्र